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|रचनाकार=लाल्टू
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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
शब्द हरा पत्ता है
कविता पत्तों टहनियों की इमारत
पत्ते मंे क्लोरोफिल
क्लोरोफिल में मैग्नीशियम
मैग्नीशियम में भरा ख़ाली आस्माँ।

पत्ते के बाकी कणों में भी मँडरा रहा शून्य
शून्य भरता ख़ालीपन
जेसे ख़ालीपन से बनता शून्य

कदाचित् घुमक्कड़ विद्युत कण खेलते
आपसी पसन्द-नापसन्द का अनिश्चित खेल।

कण में नाभि
नाभि में कण
कणों में जीवन
देखते ही देखते टहनियाँ, हरे पत्ते
उफ़! कविता का संसार!

अन्ततः क़लम

कब तक जंग में लगी-सी पड़ी थी
चारों ओर देखती, डेस्क पर, बिस्तर पर
पड़ी रहती जेब में, फाइलों के बीच

कई बार चलने को हुई
झिझकती रूक गई।

अन्ततः क़लम
चल पड़ी है
पीले रंगों की ओर
जिनकी वजह से वह रुकी पड़ी थी।

</poem>
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