2,361 bytes added,
06:43, 22 जनवरी 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|अनुवादक=
|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
}}
{{KKCatKavita}}
<poem>
चमकती आँखें पर्दे पर स्थिर हैं
तुम्हारे हाथों में एक छड़ी है
तुम कर रही हो काश्मीर और सुरक्षा बलों पर बातें
मैं देखता हूँ दिन जब तुम्हारा
वर्तमान तुम्हारी कल्पना में नहीं था
बादल जो तुम्हारे पीछे होते थे
जब तुम इठलाती मैदान पर चलती थी
तुम्हारा प्रेमी जिसे मुझसे थी ईर्ष्या
जिसे अन्दाज़ा न था
कि तुम वैज्ञानिक नहीं अर्द्धसैनिक अफ़सर बनोगी
वर्दी में एक दिन छड़ी हाथ में
सिंहासन-नुमा कुर्सी पर बैठ करोगी
काश्मीर और सुरक्षा बलों पर बातें
यूँ दूरदर्शन पर तुम्हें देखते हुए
हिन्दुस्तान के हर घर की लड़की को देखता हूँ
और एक बार तुम्हारे लिए उमड़ता है
प्यार का सैलाब
और घर-घर चल पड़ती हैं
बातें तुम्हारी ही तरह
पर कैसा काश्मीर है यह
रेगिस्तान धरती पर स्वर्ग नहीं
लड़कियों की चीखे़ं रेत के बवण्डर बन गई हैं
मैं बस तुम्हें चाहता था
कौन ला रहा धरती भर की चीखें
तुम नहीं हो अब पर्दे पर
कुछ बिक रहा पर चीखें हैं कि गूँजती जा रही हैं।
</poem>