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{{KKRachna
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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
ज़मीं फैलती है मुझ में। खुलते जाते हैं सपनों के आयाम।

पढ़ता हूँ ज्ञान-विज्ञान, कविताएँ कहानियाँ। पढ़ता हूँ ख़ुद को। पढ़ता
हूँ-जगा रहता हूँ। पढ़ते हुए ढूँढ़ता हूँ दुनिया जहाँ जागते रहने की
ज़रूरत न हो।

फ़िलहाल पढ़ता हूँ और सात अरब लोगों के सपनों से जुड़ता हूँ।
अँधेरा घिर आता है, फिर भी पढ़ता हूँ।

पास जो ख़ाली जगह थी, पढ़ते हुए देखता हूँ वह भर आई है।
पढ़ते हुए बन रहा हूँ प्रेमी, पढ़ते हुए बन रहा हूँ इन्क़िलाबी।

जागते रहने की इच्छा से कब मुक्त हो पाऊँगा।

तड़पता हूँ बेचैन, नींद आएगी कब!


</poem>
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