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|संग्रह=नहा कर नही लौटा है बुद्ध / लाल्टू
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<poem>
चिढ़ घर के साथ चलती
दफ़्तर में फलती-फूलती
रात तक परिवार दफ़्तर और बाज़ार में लोगों को छू आती

इतनी नियमित कि मैं अपना नाम भूलने लगा
अपनी चिढ़ में ख़ुद को ढूँढ़ने लगा
कभी थका-माँदा याद करता
कि किसी और को ढूँढ़ने जैसी कोई बात भी है

इसके पहले कि हवा का स्पर्श मुझ तक पहुँचे
प्रधानमंत्री जैसी शक्ल में सुना रहा होता कोई अर्द्धसत्य

चिढ़ ही चिढ़ में जीता रहता
चिढ़ अख़बारों से चिढ़ किताबों से
चिढ़ क़िस्म-क़िस्म के ख़्वाबों से

मैं चिढ़ में जी रहा था
अचानक तुमने मुझे देखा
तुमने मुझे देखा तो मैंने खु़द को देखा
तुम्हें देख मैंने खु़द को बनते हुए देखा
उँगलियों से आँखों तक मैं बनने लगा
सुबह पहाड़ शाम ढलता सूरज
दिन भर खु़शी का ढेर मैं बनने लगा
मैं सोनल मानसिंह बन सड़कों पर उतरा
चौरसिया की बाँसुरी बन गाने लगा
मैंने बच्चों के साथ चखे गुलाब-जामुन
और छुआ बाग़ के फूलों को

तुम्हें देखा तो मैंने खु़द को शिव भी नन्दी भी देखा
मैं कवि बना जब तुम्हें देखा
हर वहाँ जहाँ तुम्हें देखा
हर तब जब तुम्हें देखा।

</poem>
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