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{{KKRachna
|रचनाकार=राज़िक़ अंसारी
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<poem>अभी हम खोल के दर आ रहे हैं
नज़र यादों के मंजर आ रहे हैं

कहानी में कई ग़द्दार चेहरे
वफ़ादारी पहन कर आ रहे हैं

उठो माज़ी की खिड़की बन्द कर दो
पुराने ग़म पलट कर आ रहे हैं

अभी माहोल में इंसानियत है
अभी छत पे कबूतर आ रहे हैं

रखा था दोस्तों को आस्तीं में
निकल के सांप बाहर आ रहे हैं
</poem>