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10:45, 8 फ़रवरी 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विशाल समर्पित
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जिनको कूप समझता था मैं
गज दो गज़ ही गहरे निकले
अधरों पर मुस्कान बिखेरे
अंदर अंदर ख़ूब दहा मैं
उनसे ही अब भय लगता है
जिनके संग निर्भीक रहा मैं
स्वतंत्रता का भ्रम था केवल
मुझपर अनगिन पहरे निकले
जिनको कूप समझता था मैं
गज दो गज़ ही गहरे निकले
इस दम्भी दुनिया में बोलो
किसको मन की बात बताऊँ
मतलब के सब रिश्ते-नाते
किसको अपनी कथा सुनाऊँ
जिनसे जिनसे दुखडा रोया
बे सब के सब बहरे निकले
जिनको कूप समझता था मैं
गज दो गज़ ही गहरे निकले
जो ख़ुद ही जन्मों के प्यासे
क्या इनसे अब आस लगायें
ये छिछले गड्ढे बतलाओ
कैसे मेरी प्यास बुझायें
इन छिछले गड्ढों के अंदर
गंदे नाले ठहरे निकले
जिनको कूप समझता था मैं
गज दो गज़ ही गहरे निकले
</poem>
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