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10:45, 8 फ़रवरी 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=विशाल समर्पित
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<poem>
गाड़ी आ पहुँची स्टेशन पर
चहल पहल बढ़ गई अचानक
बहुत देर से चुप बैठे थे
किंतु एकदम लगे बोलने
कंपट टाफी वाली डलिया
जल्दी जल्दी लगे खोलने
मैंने पूछा कहाँ चल दिए
लम्बी साँस खींचकर बोले
रोज़ रोज़ की वही कहानी
रोज़ रोज़ के वही कथानक
गाड़ी आ पहुँची स्टेशन पर
चहल पहल बढ़ गई अचानक
चाबी वाली कार देखकर
बच्चे का मन मचल रहा था
पापा मुझको कार दिलादो
बच्चा ज़िद कर उछल रहा था
हाथ फिराकर सिरपर हँसकर
जब पापा ने मना कर दिया
बच्चा वहीं फ़र्श पर लोटे
बच्चे को था क्रोध भयानक
गाड़ी आ पहुँची स्टेशन पर
चहल पहल बढ़ गई अचानक
दूर देश को जाने वाले
अपना सबकुछ छोड़ रहे थे
हँसते-हँसते हाथ हिलाकर
सबसे नाता तोड़ रहे थे
ज्यों ही गाड़ी आगे लुढ़की
आँखों से आँसू भी लुढ़के
मैंने देखा प्लेटफ़ोर्म पर
भावुकता के टूटे मानक
गाड़ी आ पहुँची स्टेशन पर
चहल पहल बढ़ गई अचानक
</poem>
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