भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
ये सब जो धूसर-सी हँसी है, कहानी, प्रेम और
चेहरे की लकीरें हैं
पृथ्वी के पत्थरों, कंकालों कँकालों के अन्धकार में
घुले-मिले थे
धीरे-धीरे वे जाग रहे हैं;
पृथ्वी के अविचलित कंकाल कँकाल को खिसका कर
मुझे ढूँढ़ निकालते हैं।
समस्त बंगाल बँगाल की खाड़ी का उच्छवास जैसे थम जाता है;
मीलों तक यह धरती नीरव बनी रहती है !
जाने कौन कहता है: