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<poem>
ज़िन्दगानी की कहानी मत पूछ
कम से कम मेरी ज़बानी मत पूछ

वस्ल था ख़ूब, जुदाई भी मगर
है लगे कितनी सुहानी, मत पूछ

हार मुम्किन थी कहाँ अपनी मगर
उनकी इकतरफ़ा बयानी मत पूछ

दास्तां ग़म की रुला ही तो गयी
वो नयी थी कि पुरानी, मत पूछ

जो मुक़द्दर के सिकन्दर थे कभी
क्यों मिटी उनकी निशानी, मत पूछ

ताज और तख़्त का वारिस था जो
ख़ाक क्यों उसने भी छानी, मत पूछ

आफ़तें कितनी जहाँ में 'दरवेश'
हैं अभी तुझको उठानी, मत पूछ
</poem>
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