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दोहे / मनीष कुमार झा

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<poem>
विकट आपदा आ पड़ी, हाय!लगा आघात।
चोट खा गयी उंगलियाँ, जख्मी हैं जज्बात।।

प्रश्न पत्र है जिंदगी, जस की तस स्वीकार्य।
कुछ भी वैकल्पिक नहीं, सभी प्रश्न अनिवार्य।।

जीवन सारा खो गया, करते रहे विलास।
बिना प्रेम रस के चखे, किसकी बुझती प्यास।।

हमको यह सुविधा मिली, पार उतरने हेतु।
नदिया तो है आग की, और मोम का सेतु।।

सुख सुविधा के कर लिये, जमा सभी सामान।
बोल न आते प्रेम के, बनते हैं धनवान।।

चाहे मालामाल हो चाहे हो कंगाल।
हर कोई कहता मिला, दुनिया है जंजाल।।

राजनीति का व्याकरण, कुर्सीवाला पाठ।
पढ़ा रहे हैं सब हमें, सोलह दूनी आठ।।

मन से जो भी भेंट दे, उसको करो कबूल।
काँटा मिले बबूल का, या गूलर का फूल।।

सागर से रखती नहीं, सीपी कोई आस।
एक स्वाति की बूँद से, बुझ जाती है प्यास।।
</poem>
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