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|संग्रह=शाम सुहानी / रंजना वर्मा
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<poem>
बिना सबब के न कुछ भी होता तू इस सबब पर यक़ीन कर ले
मैं जो कहूँगी वह सच ही होगा तू मेरे अब पर यक़ीन कर ले

यूँ तो हजारों ही काली रातें गुजारीं हैं हम ने आँखों आँखों
मगर हैं अब सब उजली रातें तू मेरी शब पर यक़ीन कर ले

बहुत सहेजा है ज़िन्दगी ने मगर बिखेरा भी थोड़ा थोड़ा
बिखरने पायेगा अब नहीं कुछ तू इस अजब पर यक़ीन कर ले

न कोई मस्जिद न ही शिवाला न कोई गिरजा न तीर्थ कोई
जो सब दिलों में बसा है यकसां तू मेरे रब पर यक़ीन कर ले

</poem>