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|संग्रह=शाम सुहानी / रंजना वर्मा
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<poem>
थम गयीं जैसे सारी रंगरलियाँ
कितनी सुनसान-सी हुई गलियाँ

कैसे मायूसियों के साये में
खिल रही हैं गुलाब की कलियाँ

इतनी नाजुक-सी है लता इसकी
तोड़ लेना न सेम की फलियाँ

भूख उस ओर तड़पती है इधर
भेंट होती हैं कनक की गलियाँ

माफ़ दुश्मन को मत कभी करना
फिर ना हो बाग अब कोई जलियाँ

</poem>