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<poem>
रौनक़ तुम्हारे दम से है लैल ओ नहार की
तुम आबरू हो आमदे फ़स्ले बहार की

लफ़्ज़ों में हम बयां नहीं कर पाएंगे कभी
कैसे सहर हुई है शब ए इंतज़ार की

आ जा कि तेरे अहद ए वफ़ा का भरम रहे
रह जाए आबरू भी मेरे ए'तिबार की

हर मौज़ पर लिखा है मेरा हाल जान ए मन
क्या क़ैफ़ियत बताऊँ दिल ए बेक़रार की

हम तुम से दूर रह के तुम्हारे हैं आज भी
हम ने तो ऐसे रीत निभाई है प्यार की

अहले चमन की आँख से आँसू निकल पड़े
मौसम ने रुख़सती जो सुनाई बहार की

जो सब पे रहम करते हैं इस कायनात में
रहमत उन्हीं पे होती है परवरदिगार की

उनके बगैर दिल का ये आलम है अब 'सुमन'
बुझती हुई शमा हूँ मैं जैसे मज़ार की
</poem>