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{{KKRachna
|रचनाकार=सुमन ढींगरा दुग्गल
|अनुवादक=
|संग्रह=
}}
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<poem>
जो तेरे रू ए दरख्शां पे नज़र रखते हैं
वो ख़यालों में कहाँ शम्स ओ क़मर रखते हैं
रास्ता ये तेरी चाहत का निकाला हम ने
बस तेरे चाहने वालों पे नज़र रखते हैं
वो बहुत दूर हैं इस बात का ग़म है लेकिन
ये बहुत है वो मेरी ख़ैर ख़बर रखते हैं
मैं तेरे ग़म को छुपाऊं तो छुपाऊं कैसे
दुश्मनी मुझ से मिरे दीदा ए तर रखते हैं
बारहा बार ए समर हँस के उठाया हम ने
शाख़ ए नाज़ुक हैं मगर माँ का जिगर रखते हैं
फिर तेरे ज़ुल्म की ज़द पर न कहीं आ जायें
ऐसे मज़लूम जो आहों में असर रखते हैं
सर बलंदी का नशा जिन को चढ़ा है साक़ी
शौक़ से वो तेरी दहलीज़ पे सर रखते हैं
मंज़िलें उनकी क़दम बोस हुई हैं अक्सर
ख़ुद को जो राह में सरगर्म ए सफ़र रखते हैं
हम 'सुमन' दर्द के साये में तब्बसुम लब पर
रखना होता तो है दुश्वार मगर रखते हैं
</poem>
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|अनुवादक=
|संग्रह=
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जो तेरे रू ए दरख्शां पे नज़र रखते हैं
वो ख़यालों में कहाँ शम्स ओ क़मर रखते हैं
रास्ता ये तेरी चाहत का निकाला हम ने
बस तेरे चाहने वालों पे नज़र रखते हैं
वो बहुत दूर हैं इस बात का ग़म है लेकिन
ये बहुत है वो मेरी ख़ैर ख़बर रखते हैं
मैं तेरे ग़म को छुपाऊं तो छुपाऊं कैसे
दुश्मनी मुझ से मिरे दीदा ए तर रखते हैं
बारहा बार ए समर हँस के उठाया हम ने
शाख़ ए नाज़ुक हैं मगर माँ का जिगर रखते हैं
फिर तेरे ज़ुल्म की ज़द पर न कहीं आ जायें
ऐसे मज़लूम जो आहों में असर रखते हैं
सर बलंदी का नशा जिन को चढ़ा है साक़ी
शौक़ से वो तेरी दहलीज़ पे सर रखते हैं
मंज़िलें उनकी क़दम बोस हुई हैं अक्सर
ख़ुद को जो राह में सरगर्म ए सफ़र रखते हैं
हम 'सुमन' दर्द के साये में तब्बसुम लब पर
रखना होता तो है दुश्वार मगर रखते हैं
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