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<poem>
तुम को क्या ग़म है, हम को ये ग़म है
बात क्या है जो आंँख पुरनम है

हम किसी दिल में बस नहीं सकते
हम में मौजूद जब तलक़ 'हम' है

वक्त के साज़ पर हैं सब रक्सां
इसकी अपनी अजीब सरगम है

राह दुश्वार हो नहीं सकती
जब तलक़ साथ अज़्म ए मोहकम है

एक ही ग़म गुसार था अपना
आजकल वो भी हम से बरहम है

तेरे हाथों से ए मेरे साक़ी
ज़ह्र भी मुझ को आब ए ज़म ज़म है

वो मुकद्दर से मिल गया मुझ को
जिस की हसरत में सारा आलम है

हम पे लाज़िम है बंदगी उसकी
इसलिए उस के दर पे सर ख़म है

सब के उतरे हैं क्यूँ 'सुमन' चेहरे
आज महफ़िल में किस का मातम है
</poem>