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|रचनाकार=सुमन ढींगरा दुग्गल
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<poem>
ए क्षितिज के बटोही मनोरम चाँद
अग्नि मेरी व्यथा की होती न माँद

सखी तेरी रजनी ने लगा धीरे से घात
चोरी किये मेरे वो सुंदर स्वप्न सजात।

दृग-कोरक पंखुरियो को दिखा कर नेह
हर ले गई स्वप्न यामिनी नीरवता के गेह

भरती उच्छवास दुख से मैं हो कर विकल
कहाँ तिरोहित हुए वो स्वप्न संदली कोमल

दिवस-दिवस बीते हो चले अब तो बरस
स्वप्निल सुख निद्रा को मै तबसे गयी तरस

मेरे निमिलित नयनों मे लगा के पुनः कोई सेंध
कर प्रवंचना निशा छीन न ले सपनों के भेद

सुन दूरागत नभचारी सलोने यायावर
बन स्वप्न ललक भरी पलकों मे उतर

लौटा ला सुकुमार स्वप्नों की वह थाती
विधु आ देख मनाऊं मैं तुझे बहु भांति

घोर दुख के शर से बींधा है यह मन
सुमंद चाँदनी अपनी से कर अनुलेपन

विरहित सपनों से सूखे अंतर के सरस गान
निर्दिष्ट पथ के राही विनती अब तो मान

पहना जा भूले स्वप्न चंद्रिका के कंकण
अनंत से बरसा लुप्त सपनों के तुहिन कण
</poem>