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<poem>
तुम्हारे सामने ठहरेगा माहताब कहाँ
हसीं तुम्हारी तरह से ये बेहिसाब कहाँ

हमारे दिल की उमंगों का हाल मत पूछो
अब ऐसा बहर की मौजों में इज्तिराब कहाँ

निगाह भर तुम्हें देखने की हसरत है
मगर हमारी निगाहों में इतनी ताब कहाँ

जो आला ज़र्फ हैं वो खाक़सार हैं सारे
गुहर मिले तहे दरिया मगर हुबाब कहाँ

ज़रा सी पी के बहकने की है सज़ा शायद
जो सिर्फ आँख छलकती है शराब कहाँ

ज़िया से जिस की कोई ज़र्रा फैज़याब नहीं
वो आफ़ताब का धोखा है आफ़ताब कहाँ

किसी पे ऊँगली उठाई तो ये ख़याल आया
हमारे जैसा जहां में कोई खराब कहाँ

जो आसमान से उतरी है वो किताब हो तुम
तुम्हारे जैसी जहां में कोई किताब कहाँ

हमारे घर की ही क़िस्मत बुलंद थी शायद
वगरना आप कहाँ और हमारा बाब कहाँ

'सुमन' नसीब से वो मुझ को मिल गये वरना
हसीन इतना अभी मेरा इंतिख़ाब कहाँ
</poem>