भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
Changes
Kavita Kosh से
<poem>
मुझे मारना
तो अकेले बिलकुल अकेले मारना मुझे
मेरे साथ पानी को मत मारना
साफ़ और ठण्डा
कि धोई जा सके मेरी लाश
बची रहे हवा
जो किन्हीं दिशाओं की ओर नहीं
फेफड़ों की ओर बहती है
बहती हुई हवा आदतन मेरे मृत फेफड़ों में पहुँचे
जहाँ उसे शोक हो
बचा रहे यह मकान
कि उठ सके यहाँ से उस शाम
चूल्हे के धुएँ की जगह विलाप
और बचे रहें पेड़ भी
जो दे सकें मेरी चिता के लिए लकड़ियाँ
सच मानिए
मैं किसी वृक्ष की गहरे कुएँ जैसी छाया को याद करूँगा
तो किसी परमाणु की नाभि में नहीं
मेरी ही नाभि में घोंप देना कोई खंज़र
खंज़र अगर किसी म्यूज़ियम का हो
तो और भी अच्छा
मुग्ध तो हो सकूँगा
अकेले बिलकुल अकेले मारना मुझे
सबके साथ
एक सार्वजनिक मृत्यु में सम्मिलित होते हुए
मुझे शर्म आएगी
मेरी बायीं जाँघ पर जो एक काला-सा तिल है
उसी की तरह निजी और गोपनीय