भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
मन था जो गंगा -सा निर्मल,उसने समझा कलुष नदी-सा
कभी न मन में भाव रहा जो,उसने जो आरोप लगाया।
9
कहाँ खो गए आज प्रियवर,करके प्राणों का संचार।
फिर लौटा दो दिवस पुराने,पहना दो बाहों का हार।
कण्टक पथ है, टूटा रथ है,मन के अश्व घायल ,हारे
हाथ पकड़ लो अब तो मेरा, हो तुम ही मन का उजियार।
-0-
<poem>