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Kavita Kosh से
<poem>
प्राण बनूँ मैं
तुझमें ही समाऊँ
कहीं न जाऊँ।
पीता रहूँगा
अधर चषक से
प्यास बुझाऊँ।
तुम्हारे बिना
कहाँ- कहाँ भटके
प्राण अटके।
चैन न पाया
सागर तर आया
तुझमें डूबा।
कहाँ थे खोए
तुम प्राण हमारे
बाट निहारें।
उड़के आऊँ
गले लगा तुझको
जीवन पाऊँ।
दर्द तुम्हारा
सुधा समझ पी लूँ
दो पल जी लूँ।
मेरी योगिनी!
क्यों बनी वियोगिनी
कम्पन तुम्हीं
अंक में ले लो
हरो सन्ताप सारे
हे प्राण प्यारे।
सँभालो मुझे
ओ मन- परिणीता
अंक में भरो ।
कर्मयोगिनी
अच्छे ही कर्म करे
दु:ख ही भरे ।
क्या कर्म-फल?
शुभ सोचे व करे
नरक भरे?
तापसी जगी
नींद हुई बैरन