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13:39, 21 मई 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ऋषिपाल धीमान ऋषि
|अनुवादक=
|संग्रह=शबनमी अहसास / ऋषिपाल धीमान ऋषि
}}
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<poem>
इस तरह से भी सितम वो ढा रहे हैं
यों लगे जैसे करम फ़रमा रहे हैं।
कल चलेंगे ये भी मेरी राह पर ही
आज मुझको लोग जो समझा रहे हैं।
साफ कर लो हाथ, पत्थर फैंक कर तुम
खिड़कियों में कांच हम जड़वा रहे हैं।
जानते हैं सब कि मैं हूँ एक धारा
बांध फिर भी रेत का बनवा रहे हैं।
आग उगलते हैं जो मेरी पीठ पीछे
सामने वे लोग क्यों हकला रहे हैं।
</poem>