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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
रंग बदला, रूप बदला, रुख़ बदलना आ गया
हम को अपने को अय दोस्त छलना आ गया।

अब तो साज़िश नस्ल के बारे में भी होने लगी
उनको अपनी वल्दियत को भी बदलना आ गया।

धार पर तलवार की झूली है ऐसे ज़िन्दगी
भाप बन कर उड़ सकूँ इतना उबलना आ गया।

सभ्यता, शालीनता, तहज़ीब को, इखलास को
बर्फ की मानिंद रिस रिस कर पिघलना आ गया।

ये ज़माना चाहता है जानना 'विश्वास' से।
किस तरह उसको हवा के साथ चलना आ गया।
</poem>
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