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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
सदाक़त के उसूलों का अगर पाबन्द हो जाये
ज़माना भूल कर सब तल्खियां गुलकंद हो जाये।

मुझे बनना नहीं सूरज न मंज़िल चांद है अपनी।
नहीं मैं चाहता दुश्मन कभी फ़रज़न्द हो जाये।

बड़ी को रोकने में इतनी सख्ती भी नहीं वाजिब
बग़ीचा नेकियों वाला महकना बंद हो जाये।

किसी के नाम में ये खूबियां आ ही नहीं सकतीं
तुम्हारा नाम लिख दूँ तो मुक़म्मल छंद हो जाये।

अभी है मुंतज़िर आंखें ज़ियादा देर मत करना
कहीं ऐसा न हो 'विश्वास' धड़कन बन्द हो जाये।
</poem>
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