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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
मन मुताबिक इस ज़माने के अदाकारी न हो पाई
हर क़दम पर ज़िन्दगी के दोस्त अय्यारी न हो पाई।

हम न पूरी कर सके, हर शर्त जो रक्खी ज़माने ने
फिर किसी से दांत-काटी, दोस्ती-यारी न हो पाई।

लोग घड़ियाली बहाते आंसुओं को मिले मुझसे
नम ज़ियादा देर तक ये आंख बेचारी न हो पाई।

जी-हुजूरी करते करते एक दिन खुद्दार उठ बैठा
फिर ज़रूरत कोई भी ताज़िन्दगी भारी न हो पाई।

फूट पैदा कर लड़ाना था न सीखा इसलिए, हमसे
गांव क्या, कुनबे की भी अफ़सोस मुख्तारी न हो पाई।

दुश्मनी की फ़स्ल बोना चाहते कुछ लोग थे लेकिन
शुक्र है अल्लाह तेरा तीरगी तारी न हो पाई।

गौर से 'विश्वास' को पढ़ना खले जब भी अकेलापन
आज तक भी कमतरी की जिसको बीमारी न हो पाई।

</poem>
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