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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
बेअसर हर कामयाबी की दुआ होती रही
ज़िन्दगी भर ठूंठ रिश्ते ज़िन्दगी धोती रही।

सुरमयी थी रात लेकिन गुम घटा में चांद था
तेज़ बारिश पत्थरों की दूरी तक होती रही।

एक कुटिया दीन की तिल भर उजाले के लिए
नींद पलकों पर उठाए रात भर होती रही।

कल पढ़ा अखबार में फिर कोई घट लूटा गया
कैसे बस्ती गांव की उफ़! बेख़बर सोती रही।

नाम लिख दूँ या उसे बेनाम ख़त ये भेज दूँ
दिल के अंदर देर तक रस्साकशी होती रही।

कुछ ज़रूरी काम में मसरूफ थे बेटे-बहू
आंसुओं से ज़ख़्म बेटी बाप के धोती रही।

पूछिए मत उनको छू कर क्या हुआ रद्दे-अमल
मुद्दतों 'विश्वास' दिल में गुदगुदी होती रही।

</poem>
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