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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
रंग हावी बज़्म में था आसमानी शान से
शाम भी होने लगी थी जाफरानी शान से।

सबके चेहरे से उदासी का मिटा नामो-निशां
ख़ूब महकी झूम कर जब रात रानी शान से।

हुस्न को देने सलामी खिल गया सारा चमन
की सलीके से गई थी बागबानी शान से।

चांद तारे प्यार से करते रहे रौशन ज़मीं
मैकदे ने रात भर की मेजबानी शान से।

जोश काफी था धुनों में सारी महफ़िल मस्त थी
रात भर मस्ती में कल नाची जवानी शान से।

खत्म के दी आपने है एक पल में मुस्कुरा
इश्क़ के बाज़ार में छाई गिरानी शान से।

क्या कहोगे अपने दिल से कुछ तो बोलो ऐ सनम
क्यों नहीं 'विश्वास' पर की मेहरबानी शान से।

</poem>
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