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10:59, 22 मई 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
कभी कहना नहीं ये खाइयां हैं
सजन ये प्रीति की गहराइयाँ हैं।
बुझेगी प्यास कब प्यासी धरा की
बहुत रूठी हुई पुरवाइयां हैं।
कमी खलती है माँ की किन्तु 'मां' सी
हमारे घर में दो भौजाइयाँ हैं।
कभी पाहन में रस था किन्तु अब तो
रसीली घट रही अमराइयाँ हैं।
अरे मन! कर शुरू नक्षत्र गिनना
निशा को भा रही अंगड़ाइयां हैं।
सजाये पीर ने दोहे अधर पर
'नयन में अश्रु की चौपाइयां हैं।'
ललक 'विश्वास' जीने की मचलती
पलक जब चूमती परछाइयां हैं।
</poem>