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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
अचानक जब गिरे बिजली, झुलस खेती गई होगी
समझना गर्भ में मारी कहीं बेटी गई होगी।

ककहीं पर ज़लज़ला आने का हमने ये सबब जाना
अदालत में कहीं झूठी गवाही दी गई होगी।

न आएं फल दरख़्तों पर नदी सूखे इशारा है
छुरी की नोक पर अस्मत कहीं लूटी गई होगी।

घरौंदे उसके सपनों के अचानक ढह गये होंगे
कोई लाचार बच्ची जब कहीं बेची गई होगी।

महामारी, ये सूखा-बाढ़ तब आये, नगर में जब
क़यामत साहिबे-किरदार पर ढाई गई होगी।

अगर बस्ती जला दे आरती की लौ, तो ये तय है
जलाकर आग में कोई बहू मारी गई होगी ।

वो रोजा भोगता है नर्क जब नारी कोई दुखिया
भरे दरबार से 'विश्वास' दुत्कारी गई होगी।
</poem>
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