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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
आंखों से उनकी जब समंदर बोलते हैं
लगता कलेजे में उतर कर बोलते हैं।
लेते नहीं वो फैसले आधे-अधूरे
वो वाक़या सारा समझ कर बोलते हैं।
शायद यहां कल शब कोई तूफ़ान गुज़रा
तरतीब से सूने पड़े घर बोलते हैं।
कुछ लोग कहते हैं उसे सुनी हवेली
लेकिन वहां देखो कबूतर बोलते हैं।
दी इम्तिहाने-वक़्त ने आवाज़ जब-जब
मैदान में आकर सुख़नवर बोलते हैं।
उस वक़्त होता ये जिगर है पारा-पारा
जब बाप से बच्चे गरजकर बोलते हैं।
'विश्वास' डर मत, जब न दे कोई गवाही
खुद ज़ख़्म खंजर पर उभर कर बोलते हैं।
</poem>
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|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
आंखों से उनकी जब समंदर बोलते हैं
लगता कलेजे में उतर कर बोलते हैं।
लेते नहीं वो फैसले आधे-अधूरे
वो वाक़या सारा समझ कर बोलते हैं।
शायद यहां कल शब कोई तूफ़ान गुज़रा
तरतीब से सूने पड़े घर बोलते हैं।
कुछ लोग कहते हैं उसे सुनी हवेली
लेकिन वहां देखो कबूतर बोलते हैं।
दी इम्तिहाने-वक़्त ने आवाज़ जब-जब
मैदान में आकर सुख़नवर बोलते हैं।
उस वक़्त होता ये जिगर है पारा-पारा
जब बाप से बच्चे गरजकर बोलते हैं।
'विश्वास' डर मत, जब न दे कोई गवाही
खुद ज़ख़्म खंजर पर उभर कर बोलते हैं।
</poem>