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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
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<poem>
नाराज खुद को एक दिन शायद ज़रूर मैं करूँ
भीतर भरा दिल में जो है बाहर फितूर मैं करूँ।

कोई सिफ़त नसीब को मालिक ने दी नहीं है जब
किस खासियत पे बोलिये आखिर गुरुर करूँ।

अब तक खिले न फूल क्यों इस बाग़ में गुलाब के
गर हुक्म आपका मिले कोशिश हुज़ूर मैं करूँ।

माना कि है गुनाह इश्क़ आप की निगाह में
दिल चाहता गुनाह ये फिर भी ज़रूर मैं करूँ।

झुठला सका फ़रेब को जो आइना न वक़्त पर
उस आइने को चाहता हूँ चूर चूर मैं करूँ।

टकराव के बग़ैर दिल में सोचता हूँ किस तरह
साबित बिना गवाह, खुद को बेकुसूर मैं करूँ।

'विश्वास' कशमकश में हूँ खुशियों के ठौर के लिए
हर ग़म अज़ीज़ दिल को है किस ग़म को दूर मैं करूँ।


</poem>
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