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Kavita Kosh से
मुझको सुननी हैं हज़ार-हा धडकनें,
मुझको सुननी हैं सर्द आहें और ठंडी चीखें ।
मुझको जलाने हैं अपने ही माँस के टुकड़े , मुझको सेंकना हैं उन पर नरम हाथों की दिलफरेब लकीरों को ।
मेरे मन का तार मेरी नाभि से नहीं जुड़ता, वो जुड़ता है मेरे पैर के तलवे के तिल से कहीं ।मेरे जिस्म की रगों से लहू निकालो ज़रा , उनमें ग़मज़दा हारो का बयां बहने दो ।
मुझको बस मेरे ही जैसा नहीं रहना,
मेरे अंदर हज़ार-हा किरदारों को रहने दो