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Kavita Kosh से
बच्चे, बूढ़े और जवान सब के सब ज़िन्दादिल, अलमस्त ।
मैं फटाफट काटता हूँ एक तरबूज आतिथ्य के लिए
और करता हूँ इन्तज़ार पहाड़ का,
देती है बच्चों को फूल और खिलौने,
सुबह हर्ष का बायस है, अश्वारोही और श्रमिक के वास्ते
सुबह — सिरहाने का पत्थर मुझे लगता है कोमल तकिये-सा
सुबह के आने से समाप्त सारी दुश्चिन्ताएँ