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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार नयन
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|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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<poem>
वो हुआ जिसका नहीं इम्कान था
मेरा क़ातिल ही मिरा मेहमान था।

सिर्फ हिन्दू और मुस्लिम थे वहां
कैसे बचता वो जो इक इंसान था।

कत्ल जिस काफ़िर का तूने कर दिया
क्या पता तुझको तिरा रहमान था।

सितम को पहचानना दुश्वार था।
रास्ते पर चलना तो आसान था।

क्या मैं कहता हा-हा हू-हू था जहाँ
ग़म मिरे अफ़साने का उनवान था।

हमला-आवर असलहों से लैस थे
मेरे हाथों में मिरा दीवान था।

प्यार की बस्ती अजब इक थी जहां
मज़हबों से हर कोई अंजान था।
</poem>
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