1,756 bytes added,
05:29, 3 जून 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार नयन
|अनुवादक=
|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
जो हो अंजाम सहने के लिए तैयार बैठे हैं
मुक़द्दर से किये हम फिर वो ही तक़रार बैठे हैं।
सुनेंगे आज गूंगे और बेहरे लोग महफ़िल में
ज़बाने-चश्म से कहने को हम अशआर बैठे हैं।
फ़क़त हाथों में हरकत है ज़बां ख़ामोश रहती है
वो जैसे लड़ते-लड़ते ज़िन्दगी से हार बैठे हैं।
चलो जब कुछ नहीं तो दर्द-साज़ी की दुकां खोलें
दिलों के शहर मव हम लोग क्यों बेकार बैठे हैं।
थमेगी जंग तो जाएंगे रिश्तेदार से मिलने
इसी उम्मीद में कुछ लोग सरहद पार बैठे हैं।
सयानापन अभी से इनमें आ गया कैसे
ये बच्चे हैं तो फिर क्यों अपना बचपन मार बैठे हैं।
बचे इंसानियत कैसे वहां अल्ला क़सम बोलो
जहां मज़हब के सौदागर बने सरकार बैठे हैं।
</poem>