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Kavita Kosh से
और ज़रूर किसी दिन
और उसके काते हुए सूत से अपने धनुष की डोरी बनाऊँगा. बनाऊंगा।
ख़ुश्बू आती थी
और जेहलम नदी तैरकर पार कर जाती थी. थी।
(या शायद खा नहीं पाती थी)
लेकिन वह उनकी मदद से मुझे गिनती सिखाती थी…थी...।
तो दो पर बीस
तीन पर तीस
चार पर चालीस…चालीस...
और चालीस की संख्या आते ही
वह खिलण्डरी खिलंडरी लड़की—
मुझे अलीबाबा के नाम से चिढ़ाती
और चालीस चोरों की कहानी सुनाती.सुनाती।
कहानियाँ माँ भी सुनाया करती थी
जिसमें ताज़े संगतरों की ख़ुशबू
और चालीस चोरों का ज़िक्र साथ होता था. था।
माँ अब बूढ़ी हो चुकी है
और कहती है कि जेहलम नदी सूखती जा रही है.है।
माँ का विश्वास है
जिसके शरीर से ताज़े संगतरों की ख़ुशबू आती थी—
और जो एक रात इस नदी में डूब कर मर गई थी. थी।
कहते हैं कि नदी में डूबकर मरने वालों की—
:::आत्माएँ भटकती रहती हैं…हैं...
... नैनं छिन्दति शस्त्राणि,नैनं दहति पावक:
:::आत्मा कभी मरती नहीं.नहीं।
आत्मा मरती नहीं,शायद इसीलिए भटकती है.है।
और जब भटकती आत्मा की बात चलती है
तो सहसा मुझे—
नागार्जुन की एक कविता की याद आती है.है।
जो आजकल कलकत्त कलकत्ता में रहते हैं
और लोगों से कहते हैं
कि कलकत्ता आओ—
मैं तुम्हें भटकती आत्माएँ दिखाऊँगादिखाऊंगा
—भय और आतंक की ऐसी कविता सुनाऊँगासुनाऊंगा
कि जिस्म के रोंगटे खड़े हो जाऎँगेजाएंगे
आँखों में दहशत के जंगल उग आएँगे.आएंगे।
कलकत्ता अब सिर्फ़ एक शहर का नाम नहीं
और जिसकी हिफ़ाजत के लिए
आदमीनुमा दरिंदे दनदनाते हैं !
नहीं मैं कलकत्ता नहीं जाऊँगाजाऊंगा
नहीं देखूँगा देखूंगा किस तरह आदमी—
एक आतंक से दूसरे आतंक तक जीता है
पीठ पर लाठियाँ खाता है
आँखों से अश्रुगैस पीता है. है।
नहीं देखूँगा देखूंगा किस तरह—
झूठी मुठभेड़ों के नाम पर
और घरों में इंतज़ार कर रही माँएँ
आँसू सूख जाने के बावजूद रोती हैं…हैं. ..।
जो अक्सर मुझे—
नागार्जुन की कविता से मिलती —जुलती-जुलती
एक सच्ची कहानी सुनाती है
एक कारख़ाने की भट्टी में
ज़िंदा जला दिया जाता. जाता।
कि दोनों बहनों के जिस्मों से
ताज़े संगतरे की ख़ुशबू आती थी. थी।
तो हर बार वह यह कह कर टाल जाती है
कि इस तरह के कारख़ाने शहर में होते हैं. हैं।
मैं गिनती करने लगता हूँ—
तो दो में चार
दस में बीस
बीस में चालीस,और
भटकती हुई एक आवाज़ आती है
चोर मटकों में बंद हैं
इन्हें गर्म तेल से ज़िन्दा जला डालो.डालो।
मैं चीख़ना चाहता हूँ
लेकिन इनके हथियार
हमारे हथियारों से बहुत बड़े हैं.हैं।
मैं चीख़ता नहीं, चुप रहता हूँ
वीराँ ,तुम भी चुप रहो
और स्मृतियों की दालानों में लौट जाओ. जाओ।
एक सामरिक चुप्पी में
कविता से कोई बड़ा हथियार गढ़ रहा हूँ.हूँ।