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{{KKRachna
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|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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<poem>
जला था जिस्म ही मिरा ये कौन दिल जला गया
बची हुई उमीद के चराग़ को बुझा गया।

हमारे पास अब न गुज़रा वक़्त है न याद है
तुम्हारे साथ ही हमारा ख़्वाब भी चला गया।

न जाने किसकी थी दुआ कि मरते-मरते बच गया
तू मुझसे दूर जब हुआ ज़माना पास आ गया।

न तुमने हमसे कुछ कहा न हमने तुमसे कुछ कहा
मगर तमाम शहर में तुम्हें हमें सुना गया।

मिरी तरह यहां भी कोई है यकीन हो गया
ये कौन शहरे-बेदिली में धड़कने बढ़ा गया।

समझ गया कहां रुका है इंक़लाब माँ क़सम
जवाब खुद सवाल-दर-सवाल जब उठा गया।

अबस डरा रहा था आफताब डूबता हुआ
हुई जो रात तीरगी को महताब खा गया।

</poem>
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