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05:50, 3 जून 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार नयन
|अनुवादक=
|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
क्या बात है कि रंग बदलने लगी है शाम
राहत सुकूँ क़रार निगलने लगी है शाम।
गद्दार कोई समझे कि बाग़ी कहे उसे
मुट्ठी से मगर सबकी फिसलने लगी है शाम।
हैरत है ऐसी सर्द फज़ाओं के दरमियान
सहरा की दोपहर सी पिघलने लगी है शाम।
हर सम्त लाल-लाल धुआँ छा रहा है आज
ज्वालामुखी की आग-सी जलने लगी है शाम।
ऐसा न सोचिये कि फ़क़त हमको आपको
इस दौर में तो सबको ही खलने लगी है शाम।
आओ पता करें कि नया माजरा है क्या
क्यों दोपहर के क़ब्ल ही ढलने लगी है शाम।
अहले-अदब कुछ और उठाओ क़लम के साथ
आंखों में इंक़लाब की पलने लगी है शाम।
</poem>