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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार नयन
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|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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<poem>
काशी है इधर काबा कलीसा भी इधर है
मैं ढूंढ रहा हूँ मिरा महबूब किधर है।

मुझमें तो अभी तक है बची क़ुव्वते-इज़हार
उंगली है मिरे पास अभी ख़ूने-जिगर है।

रह जाये न मंज़िल मिरे पैरों को तरसती
तक़दीर में शायद मिरी ता-उम्र सफ़र है।

आंखें न रहीं मेरी मगर हैं तो वो ही लोग
मुझको है नज़र आता कहां किसकी नज़र है।

एहसास उसी रब की तरह ही है तुम्हारा
आता न नज़र मुझको तू मौजूद मगर है।

कुछ देर फ़क़त और मिरे साथ ही जलना
ऐ शमअ न बुझना की बहुत पास सहर है।

आया है मिरा नाम ज़बां पर जो तुम्हारी
ये मेरे लिए आज बहुत खास ख़बर है।
</poem>
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