1,324 bytes added,
06:35, 3 जून 2019 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार नयन
|अनुवादक=
|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
रुख़ हवाओं का बहुत बदला हुआ है
गुलिस्तां का हर शजर सहमा हुआ है।
पीटता है आज अपना सर समंदर
आब हर दरिया का ही ठहरा हुआ है।
खो गया हो जैसे दुनिया का मुक़द्दर
माँ क़सम हर आदमी रोता हुआ है।
एक मुफ़लिस भूख से जो लड़ रहा था
आज उसकी मौत पर जलसा हुआ है।
एक तू ही तो नहीं फुटपाथ पर है
आशियाँ कितनों का ही उजड़ा हुआ है।
चीखता है रात ही से गांव सारा
रहबरों का काफ़िला आया हुआ है।
मौत की उंगली पकड़कर चल पड़ी है
ज़िन्दगी के साथ फिर धोखा हुआ है।
</poem>