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{{KKRachna
|रचनाकार=कुमार नयन
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|संग्रह=दयारे हयात में / कुमार नयन
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<poem>
तोड़ दो दोनों तरफ मंज़र दिखे उस पार का
काम क्या आंगन में है अब इस बड़ी दीवार का।

क्या पता है फूल को इठला रहा जो डाल पर
उसके खिलने में लहू कितना लगा है ख़ार का।

हीर-रांझा क़ैस-लैला तितलियाँ परवाने-गुल
तुम लगा सकते न अंदाज़ा जुनूने-प्यार का।

सबने कश्ती डूबते देखा किनारे पर मगर
नाख़ुदा ने जुर्म साबित कर दिया मंझधार का।

रख बनने तक अता करनी है जिसको रौशनी
पूछते हैं क्या मुक़द्दर आप उस अंगार का।

हादसों खबरों बयानों ने तो कर ली खुदकुशी
क्या भरोसा कर रहे हो अब मियां अखबार का।

कोई कुछ बोला नहीं चुपचाप सुन सब चल दिये
माँ क़सम होता नहीं अब कुछ असर अशआर का।
</poem>
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