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{{KKRachna
|रचनाकार=कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
|अनुवादक=
|संग्रह=रेत पर उंगली चली है / कृपाशंकर श्रीवास्तव 'विश्वास'
}}
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<poem>
शिकायत मैं कभी अपने मुक़द्दर की नहीं करता।
न हो मुमकिन जो खुद से उसके मैं सपने नहीं बुनता।

नहीं देखा फरिश्ता कोई भी मां-बाप से बढ़कर
जिन्हें दोनों मयस्सर हों उन्हें फिर क्या नहीं मिलता।

अक़ीदत दिल में है, सजदे में सर है, चश्मे-तर है गर
दुआ उस नेक बन्दे की ख़ुदा खारिज़ नहीं करता।

कभी जब पंचमी को माघ की, अम्मा बुलाती हैं
उन्हें कहता हूँ मैं चाची कभी धोबन नहीं कहता।

रुके रथ चांद-सूरज का गरुड़ का पथ भले लेकिन
किसी के रोकने से वक़्त का पहिया नहीं रुकता।

ज़माना कह पड़े बेसाख़्ता कोशिश ये ज़ारी है
वो लिखता है कलेजे पर वो काग़ज़ पर नहीं लिखता।

न आये काम दौलत और ऐ 'विश्वास' हिकमत भी
बिकाऊ जो नहीं होता खरीदा जा नहीं सकता।
</poem>
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