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13:22, 25 जून 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=एस. मनोज
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|संग्रह=
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<poem>
हम प्रकृति क उजारि
बसा लेलहुँ शहर
आ आब ताकि रहल छी
पोखरि , माँछ,मखान ,धान
पीपरक छाँव
कोयलीक कूक
मंद शीतल पवन
बरखा बुन्नी
शीत बताश
बाढि आ सुखारक
प्राकृतिक उपचार।
प्रकृति सँ छेङछाड
जीवन सँ छेड़छाड थिक।
प्रकृति विनिष्ट भ जाएत
त जीवन विनष्ट भ जाएत
प्रकृति आ जीवन संगे रहत
निर्णय मनुखे क हाथ अछि
ओ प्रकृति क साथ रहत
वा ओकरा उजारत
</poem>