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|रचनाकार=गोपाल कृष्ण शर्मा 'मृदुल'
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<poem>
छेड़ती हर सुबह तराना है।
जानकर भी कि शाम आना है।।

जिन्दगी जूझने का जज़्बा है,
हारने पर नहीं ठिकाना है।।

जोश-हिम्मत से क्या नहीं होता,
बस इन्हंे खुद से आज़माना है।।

धार नज़रों की है बहुत पैनी,
चूकता भी नहीं निशाना है।।

लुत्फ़ लेना है ज़िन्दगी का गर,
दरिया-ए-इश्क़ में समाना है।।

दूसरों के लिए जिया जो भी,
याद रखता उसे ज़माना है।।

मौत का दिन मुआ मुक़र्रर है,
ढूँढ़ लेती ‘मृदुल’ बहाना है।।
</poem>
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