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Kavita Kosh से
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कई-कई दिन
लौटी है अनारकली...........।.
जॉब कार्ड
दिखाकर
आज-कल के चक्कर में
अधिकारियों की बातों में
हफ्तों से अटकी है अनारकली।।अनारकली..
खाली हाथ/घर लौटती
सोच में डूबी अनारकली
भाग्य को कोसती है
अपनी माँ पर खीझती है
आख़िरकार क्यों नही नहीं रखा उसका नाम करमजली.........।.सेचती सोचती जाती है
चलते-चलते आँखों में
आ जाती है बेटी सूरजकली.....।.
फुदकती आ रही होगी
स्कूल से
पर पढ़ाई से कभी
मुँह नहीं मोड़ती है
सूरजकली..........।.
इसी पर तो जी रही है
अपने सपने को पलता
देख रही है अनारकली......।.
चौथी क्लास में
झनझना उठता है
उसका पोर-पोर
और गाल टमाटर -सा लाल हो जाता है........।.
उँगुलियाँ माँ की
चिपक जाती हैं
यह देख
अपने किये पर
खीझती है अनारकली..............।.
अपना बाल दोनों हाथों
नोचती है
एक छोटी सी माँग
बेटी की कहाँ
पूरा कर पाती हैसन्न, अनारकली............एक दम सन्न
सन्न....एक दम सन्न
खड़ी रहती है सूरजकली
समझना चाहती है
आखिर क्यों.........?
इत्ती छोटी बात
नहीं समझती है..... माँ कैसे बताये उसे बेटी के सर से जब से उठा है पिता का सायातब से कितने ज़ुल्म सहे हैं उसने अपनों व गैरों केकई-कई बार मथ डाला हैउसके शरीर को कभी जेठ ने तो कभी ससुर ने.......फिर भी इस जु़ल्म को डर-डर कर सहती रही घर से बेदख़ल होने से हमेशा बचती रही......। जब बगावत कर निकली घर से ज़ाँब कार्ड के सहारे अपने पैरां पर खड़े होने की आस लिए........। क्या पता थासरकारी जाल में फँसना कितना भारी पड़ता हैहफ्तों-हफ्तों बादकहीं एक दिन काम मिलता है........।।शायद इसी तरह हर गरीब कासपना मरता है। सोचते-सोचतेअचानक वह बेहोश सी ज़मीन पर गिरती हैआँखें खुलती हैं तो देखती हैअपने हाथों से माँ के आँसूपोंछ रही होती है सूरजकली........।माँ की हालत देख अपराध-बोध की पीड़ा लियेगिड़गिड़ाती है"माँ मुझेखाने से पहले हाथ नहीं धोना है साबुन सेमैंखाने से पहले हाथ धो लूँगी रगड़-रगड़ कर माटी सेपानी से.........।।पर मुझे स्कूल जाना हैस्कूल जाना है....स्कूल जाना है....स्कूल जाss नाss हय....कहते-कहतेसिसकियाँ भरने लगती है सूरजकली........।।
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