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मासूमियत / सुनीता शानू

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उम्मीदों और खुशियों से भरी
एक मीठी सी धुन
गाता हुआ वह
चलाये जा रहा था
हाथों को सटासट...

कभी टेबिल तो कभी कुर्सी
चमकाते
छलकती कुछ मासूम बूँदें
सूखे होंठों को दिलासा देती
उसकी जीभ
खिंच रही थी चेहरे पर
उत्पीड़न से
मासूमियत के हनन की तस्वीर

मगर फ़िर भी
यन्त्रचालित सा
हर दिशा में दौड़ता
भूल गया था वह कि
कल रात से उसने
नहीं खाया था कुछ भी...

एक के ऊपर एक
करीने से जमा
जूठे बर्तन उठाते
उसके हाथ
नही देते थे गवाही
उसकी उम्र की

मासूम अबोध आँखों को घेरे
स्याह गड्ढों ने भी शायद
वक्त से पहले ही
समझा दिया था उसे-
कि सबको खिलाने वाले
उसके ये हाथ
जरूरी नही कि भरपेट खिला पायेंगे
उसी को...
</poem>
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