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08:45, 16 जुलाई 2019 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार= कुमार मुकुल
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<poem>
लोगों से बोले डब्बू जी
लोकतंत्र है डब्बा जी
देखो कैसा सजता है
पर खाली हो तो बजता है
सो इसको अविलंब भरो
लाओ नोटों का गडडा जी
लोगों से बोले डब्बू जी
लोकतंत्र है डब्बा जी
गैंडे जैसी काया मेरी
नोटों से ही चलती है
अपने चेलों की ठटरी
उसे ही खाकर पलती है
सो अपनी हडडी का चूरा
जल्दी जल्दी डालो जी
इस डब्बे को भरने को
कमेटी एक बना लो जी
लोगों से बोले डब्बू जी
लोकतंत्र है डब्बा जी
</poem>