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Kavita Kosh से
मेरे भीतर से चलकर
वह मुझ तक आया
और एक जोर ज़ोर का
तमाचा लगाकर
चलता बना। मैं अवाक्, हतबुद्धि, फाजिल फ़ाजिल सन्नाटे में था,
कि मेरी आस्थाओं की नग्नता देख
वह रुका
बड़े विद्रूप ढंग-से मुस्कराया
औ’ आशंका और संभावनाओंसम्भावनाओंके चंद चन्द टुकड़े
उछालकर मेरी ओर
चला गया। स्मृतियों के जंगलाती महकमें जँगलाती महकमे से
निकल तब
एक-एक कर चले आते
और बैठते जाते
खेत की टेढ़ी-मेढ़ी मेड़ो मेड़ों पर पंक्तिबद्धपँक्तिबद्धयहां यहाँ से वहांवहाँजंगल जँगल से लेकर गाँव के सिवान तक,और शुरू हो जाती अंतहीन अन्तहीन बहसें। सुबह से रात और रात से सुबह तकतब तक , जब तकमंदिर मन्दिर की दरकी दीवारों के पार
गर्भ-गृह के सूनेपन मे सिहरता ईश्वर
कूच कर जाता है और मस्जिद से आती
अज़ान की आवाजों आवाज़ों मेंखुदा ख़ुदा ठहर-सा जाता है।
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