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('''उदय प्रकाश के लिए )
पत्तों की तरह बोलते
तने की तरह चुप
एक ठिंगने ठिगने से चीनी भिक्खु थे वे
जिन्हें उस जनपद के लोग कहते थे
चीना बाबा
कब आए थे रामाभार स्तूप पर
यह कोई नहीं जानता था
पर जानना जरूरी ज़रूरी भी नहीं थाउनके लिए तो , बस , इतना ही बहुत था
कि वहाँ स्तूप पर खड़ा है
चिड़ियों से जगरमगर जगर-मगर एक युवा बरगद
बरगद पर मचान है
और मचान पर रहते हैं वे
अगर भूलता नहीं तो यह पिछली सदी के
पाँचवें दशक का कोई एक दिन था
जब सड़क की ओर से भोंपू की आवाज आवाज़ आई
"भाइयो और बहनो,
प्रधानमंत्री प्रधानमन्त्री आ रहे हैं स्तूप को देखने..."
प्रधानमंत्रीप्रधानमन्त्री !
खिल गए लोग
जैसे कुछ मिल गया हो सुबह -सुबहपर कैसी विडंबनाविडम्बना
कि वे जो लोग थे
सिर्फ सिर्फ़ नेहरू को जानते थेप्रधानमंत्री प्रधानमन्त्री को नहीं!
सो इस शब्द के अर्थ तक पहुँचने में
उन्हें काफी दिक्कत काफ़ी दिक़्क़त हुईफिर भी सुर्ती मलते और बोलते -बतियाते
पहुँच ही गए वे वहाँ तक
कहाँ तक?
यह कहना मुश्किल है
कहते हैं- प्रधानमंत्री आये— प्रधानमन्त्री आए
उन्होंने चारों ओर घूम कर देखा स्तूप को
फिर देखा बरगद को
जो खड़ा था स्तूप पर
पर , न जाने क्यों
वे हो गए उदास
(और कहते हैं- — नेहरू अक्सर
उदास हो जाते थे)
फिर जाते जाते एक अधिकारी को
पास बुलाया
कहा- — देखो- , उस बरगद को गौर से देखोउसके बोझ से टूट करटूटकर
गिर सकता है स्तूप
इसलिए हुक्म हुक़्म है कि देशहित में
काट डालो बरगद
और बचा लो स्तूप को
यह राष्ट्र के भव्यतम मंच मँच का आदेश थाजाने -अनजाने एक मचान के विरुद्ध
इस तरह उस दिन एक अद्भुत घटना घटी
भारत के इतिहास में
कि मंच मँच और मचानयानी एक ही शब्द के लंबे लम्बे इतिहास केदोनों ओरछोरओर-छोर
अचानक आ गए आमने सामने
अगले दिन
सूर्य के घंटे घण्टे की पहली चोट के साथस्तूप पर आ गए-—
बढ़ई
मजूर
इंजीनियर
कारीगर
आ गए लोग दूर -दूर से
इधर अधिकारी परेशान
क्योंकि उन्हें पता था
खाली ख़ाली नहीं है बरगद
कि उस पर एक मचान है
और मचान भी खाली ख़ाली नहीं
क्योंकि उस पर रहता है एक आदमी
और खाली ख़ाली नहीं आदमी भीक्योंकि वह जिंदा ज़िन्दा है
और बोल सकता है
क्या किया जाय?हुक्म हुक़्म दिल्ली का
और समस्या जटिल
देर तक खड़े-खड़े सोचते रहे वे
कि सहसा किसी एक ने
हाथ उठा प्रार्थना की-—
"चीना बाबा,
ओ ओ चीना बाबा!
नीचे उतर आओ
बरगद काटा जायेगाजाएगा""काटा जाएगा?क्यों? लेकिन क्यों?"जैसे पत्तों से फूट कर जड़ों की आवाज आवाज़ आई
"ऊपर का आदेश है-— "
नीचे से उतर गया
"तो शुनो,"- — भिक्खु अपनी चीनी गमक वालीहिंदी हिन्दी में बोला,
'चाये काट डालो मुझी को
उतरूँगा नईं
ये मेरा घर है!"
भिक्खु की आवाज आवाज़ में
बरगद के पत्तों के दूध का बल था
अब अधिकारियों के सामने
एक विकट सवाल था- — एकदम अभूतपूर्वपेड़ है कि घर- -...
यह एक ऐसा सवाल था
जिस पर कानून चुप था
इस पर तो कविताएं कविताएँ भी चुप हैं
एक कविता प्रेमी अधिकारी ने
धीरे से टिप्पणी की
दूर तक जब कुछ नहीं सूझा
तो अधिकारियों ने राज्य के उच्चतम
अधिकारी से संपर्क सम्पर्क कियाऔर गहन छानबीन के बाद पाया गया-— मामला भिक्खु के चीवर -साबरगद की लंबी लम्बी बरोहों से उलझ गया हैहार कर पाछ कर अंततः हारकर पाछकर अन्ततः तय हुआदिल्ली से पूछा जायजाए
और कहते हैं-—
दिल्ली को कुछ भी याद नहीं था
न हुक्महुक़्म
न बरगद
न दिन
न तारीखतारीख़कुछ भी - — कुछ भी याद ही नहीं था
पर जब परतदरपरतपरत-दर-परतइधर से बताई गई स्थिति की गंभीरतागम्भीरता
और उधर लगा कि अब भिक्खु का घर
यानी वह युवा बरगद
कुल्हाड़े की धार से , बस , कुछ मिनट दूर हैतो खयाल ख़याल है कि दिल्ली ने जल्दी -जल्दी
दूत के जरिए बीजिंग से बात की
इस हल्की सी उम्मीद में कि शायद
कोई रास्ता निकल आयेआए
एक कयास यह भी
कि बात शायद माओ की मेज तक गयीगई
अब यह कितना सही है
कितना गलतग़लत
साक्ष्य नहीं कोई कि जाँच सकूँ इसे
पर मेरा मन कहता है — काश ! यह सच हो
कि उस दिन
विश्व में पहली बार दो राष्ट्रों ने
एक पेड़ के बारे में बातचीत की
-— तो पाठकगणयह रहा एक धुँधला धुन्धला सा प्रिंटआउटप्रिण्ट आउट
उन लोगों की स्मृति का
जिन्हें मैंने खो दिया था बरसों पहले
और छपतेछपते छपते-छपते इतना औरकि हुक्म हुक़्म की तामील तो होनी ही थीसो जैसेतैसे जैसे-तैसे पुलिस के द्वारा
बरगद से नीचे उतारा गया भिक्खु को
और हाथ उठाए - — मानो पूरे ब्रह्मांड ब्रह्माण्ड मेंचिल्लाता रहा वह-—
"घर है...ये...ये....मेरा घर है'
पर जो भी हो
अब मौके पर मौजूद टाँगों टँगे कुल्हाड़ों कारास्ता साफ साफ़ था
एक हल्का सा इशारा और ठक् ...ठक्
गिरने लगे वे बरगद की जड़ पर
पहली चोट के बाद ऐसा लगा
जैसे लोहे ने झुक करझुककरपेड़ से कहा हो- — "माफ माफ़ करना , भाई,कुछ हुक्म हुक़्म ही ऐसा है"
और ठक् ठक् गिरने लगा उसी तरह
उधर फैलती जा रही थी हवा में
युवा बरगद के कटने की एक कच्ची गंधगन्ध
और "नहीं...नहीं..."
कहीं से विरोध में आती थी एक बुढ़िया की आवाजआवाज़
और अगली ठक् के नीचे दब जाती थी
जाने कितनी चहचह
जाने कितनी देर तक
-— कि अचानक
जड़ों के भीतर एक कड़क सी हुई
और लोगों ने देखा कि चीख चीख़ न पुकारबस , झूमता -झामता एक शाहाना अंदाज अन्दाज़ में
अरअराकर गिर पड़ा समूचा बरगद
सिर्फ 'घर' - — वह शब्द
देर तक उसी तरह
टँगा रहा हवा में
इस सच तक पहुँचने में
कि उस तरह देखो
तो हुक्म हुक़्म कोई नहीं
पर घर जहाँ भी है
उसी तरह टँगा है.।
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