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कथान्तर / विनय कुमार

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और निर्गुण वायु के बीच की है ।
'''(दो)
मैंने वह समय देखा है
वहीं से आरम्भ ...।
'''(तीन)
मैं नगर के अन्तिम घर का वासी हूँ
ऐसे ही छूटते हैं उसके गुण
'''(चार)
कहते थे गुरु
तो मेघों के बीच मैं !
'''(पाँच)
शीत नहीं ताप नहीं
कोई विश्रान्ति नहीं ।
'''(छह)
कुन्दन-सी काया कुमुदिनी मुस्कान
कि उड़ने को जी चाहे ।
'''(सात)
साम्राज्ञी की ओर से आती रही वह
सृजन-राग सप्तम पर ।
'''(आठ)
अन्तस की अग्नि से पाहन पिघलते रहे
पत्थर भी निर्मल जल-दर्पण हो सकता है
'''(नौ)
‘किसी भी स्त्री को अँगों में बाँटकर देखना पाप है
किन्तु, मेरी सहमी हुई चेतना का जागना सत्य था
'''(दस)
दिवस है तो दिवस रात्रि है तो रात्रि
कुछ भी तो नहीं था स्वच्छ
'''(ग्यारह)
तुम्हारे बाल उड़ रहे हैं
कहीं और देखने लग जाते हैं.
'''(बारह)
एक दिन आई वह हल्के नीले वस्त्र में
धूल-धूसरित कार्यशाला को धन्य कर
'''(तेरह)
एक मास बाद क्षुधा और क्लान्ति थी
मुड़कर एक बार भी नहीं देखा
'''(चौदह)
— लेकिन क्यों ?
शेष संहार…….....शेष संहार
'''(पन्द्रह)
यह गँगा का तट है कवि
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