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<poem>
कानों मे पिघलने लगती है ध्वनियाँ
तबला... तानपुरा...
बिलखने लगते है कई घराने
साधते रहे जो सुरों को उम्रभर

मै गुज़ार देता हूँ सारे पहर इन्टरनेट पर
और डाउनलोड कर लेता हूँ कई राग
भैरवी
आसावरी
खमाज

साँस बस चल रही है
मैं ख़याल और ठुमरी जी रहा हूँ

कबीर हो जाता हूँ कभी
कुमार गन्धर्व आ जाते हैं जब
"उड़ जायेगा हंस अकेला
जग दर्शन का मैला "

ख़याल फूटकर तड़पने लगता है
बनारस की सडकों पर
पंडित छन्नूलाल मिश्र
"मोरे बलमा अजहूँ न आए "
छलक पड़ती है ग़ज़ल

रिसने लगती है कानों से
"रंजिश ही सही दिल ही दुखाने के लिए आ"
यह अलग बात है कि तुम अभी भी
वेंटिलेटर पर सुर साध रहे हो मेहदी हसन।

गन्धर्व का घराना भटकता है सडकों पर
देवास
भोपाल
होशंगाबाद
मुकुल शिवपुत्र
किसी अज्ञात सुर की तलाश में
इस बेसुरी भीड़ के बीच ...
</poem>
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